Mirza Ghalib Shayari in Hindi – आपको यहाँ पर कुछ बेहतरीन Mirza Ghalib Ki Shayari का संग्रह दिया गया हैं. यह सभी लोकप्रिय और प्रसिद्ध शायरी मिर्जा गालिब के द्वारा लिखी गई हैं. यह सभी Ghalib Ki Shayari आपको बहुत ही पसन्द आएगी.
मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी, Mirza Ghalib Shayari in Hindi
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या,
बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था।
यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
[/share_and_copy_block]इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे[/share_and_copy_block]
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज।
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं।।
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता।
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।।
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे।
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है।।
बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता।
वगर्ना शहर में “ग़ालिब” की आबरू क्या है।।
तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें।
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं।।
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़।
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले।।
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन।
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले।।
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं।
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं।।
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़।
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है।।
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है।
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।।
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का।
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता।।
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई।
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।।
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे।
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।।
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना।
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।।
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को।
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।।
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’।
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था।।
तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना।
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।।
हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है।
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।।
न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा।
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है।।[share_and_copy_block]
[share_and_copy_block]चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन।
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है।।
Ghalib Ki Shayari
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार।
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है।।
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी।
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है।।
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को।
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं।।
वाइज़!! तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिलाके देख।
नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख।।
हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब।
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।।[share_and_copy_block]
[share_and_copy_block]दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए।
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।।
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।।
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और।।
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले।
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।
कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में।
पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते।।
Galib Ki Shayari in Hindi
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का।
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।।
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां।
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।।
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक।
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक।।
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ।
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।।
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई।
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।।
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना।
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।।
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’।
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।।
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है।
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।।
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’।
शर्म तुम को मगर नहीं आती।।
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़।
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।।
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया।
वर्ना हम भी आदमी थे काम के।।
बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”।
हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है।
मौत का एक दिन मुअय्यन है।
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।
कोई उम्मीद बर नहीं आती।
कोई सूरत नज़र नहीं आती।
लोग कहते है दर्द है मेरे दिल में ,
और हम थक गए मुस्कुराते मुस्कुराते
हमारे शहर में गर्मी का यह आलम है ग़ालिब
कपड़ा धोते ही सूख जाता है
पहनते ही भीग जाता है
उम्र भर देखा किये, मरने की राह
मर गये पर, देखिये, दिखलाएँ क्या
की वफ़ा हम से, तो गैर उसको जफ़ा कहते हैं
होती आई है, कि अच्छो को बुरा कहते हैं
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मोहब्बत ही सही
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता,
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता !!
खुद को मनवाने का मुझको भी हुनर आता है
मैं वह कतरा हूं समंदर मेरे घर आता है
तू मिला है तो ये अहसास हुआ है मुझको,
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है ….
वो जो काँटों का राज़दार नहीं,
फ़स्ल-ए-गुल का भी पास-दार नहीं !!
फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ !!
मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा ग़ालिब
यह न सोचा के
एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी
हम तो फना हो गए उसकी आंखे देखकर गालिब,
न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे।
खैरात में मिली ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती ग़ालिब,
मैं अपने दुखों में रहता हु नवावो की तरह।
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ग़ालिब की शायरी हिंदी में
ज़िन्दगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते,
कफ़न भी लेते है तो अपनी ज़िन्दगी देकर।
हम न बदलेंगे वक़्त की रफ़्तार के साथ,
जब भी मिलेंगे अंदाज पुराना होगा।
जब लगा था तीर तब इतना दर्द न हुआ ग़ालिब
ज़ख्म का एहसास तब हुआ
जब कमान देखी अपनों के हाथ में।
तुम अपने शिकवे की बातें
न खोद खोद के पूछो
हज़र करो मिरे दिल से
कि उस में आग दबी है
पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के,
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है
तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी
मेरा न बन सका , “ग़ालिब“
और दिल वो काफिर,
जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया
तेरे हुस्न को परदे की ज़रुरत नहीं है “ग़ालिब”
कौन होश में रहता है तुझे देखने के बाद
ख्वाहिशों का काफिला भी अजीब ही है “ग़ालिब”
अक्सर वहीँ से गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता
आया है मुझे बेकशी इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किस का घर जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद
तोड़ा कुछ इस अदा से
तालुक़ उस ने “ग़ालिब”
के सारी उम्र अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे
Galib Shayri
उनको देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,
वो समझते हैं के बीमार का हाल अच्छा है
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
Sad Poetry Mirza Ghalib
عمر بھر ہم یوں ہی غلطی کرتے رہے غالب”
“دھول چہرے پہ تھی اور ہم آئینہ صاف کرتے رہے
Umar bhar hum yun hi ghalti karte rahay ghalib
dhool chehray pay thi aur hum aaina saaf karte rahay
دفن کرنے سے پہلے میرادل نکال لینا غالب”
“کہیں خاک میں نہ مل جائیں میرے دل میں رہنے والے
Dafan Karne Se Pehlay Miradl Nikaal Lena Ghalib
Kahin Khaak Mein Nah Mil Jayen Mere Dil Mein Rehne Walay
بے وجہ نہیں روتا عشق میں کوئی غالب”
“جسے خود سے بڑھ کے چاہو وہ رلاتا ضرور ہے
Be Wajah Nahi Rota Ishhq Mein Koi Ghalib
Jisay Khud Se Barh Ke Chaho Woh Rulaata Zaroor Hai
غالب وہ دن گئے اب حماقت کون کرتا ہے”
“وہ کیا کہتے ہیں اسکو ہاں۔۔محبت۔۔ محبت کون کرتا ہے
Ghalib Woh Din Gaye Ab Hamaqat Kon Karta Hai
Woh Kya Kehte Hain Usko Haan Mohabbat Mohabbat Kon Karta Hai
عشق پر زور نہیں ہے یہ وہ آتش غالب”
“کہ لگاۓ نہ لگے، اور بجھائے نہ بجھے
Ishhq Par Zor Nahi Hai Yeh Woh Aatish Ghalib
Ke Lagaye Nah Lagey, Aur Bujhaye Nah Bujhe
صحرا کو بڑا اعالم ہے اپنی تنہائی پر غالب”
“اس نے دیکھانہیں عالم میری تنہائی کا
Sehraa Ko Bara Aalam Hai Apni Tanhai Par Ghalib
Is Ne Dekha Nahi Aalam Meri Tanhai Ka
آئینہ کیوں نہ دوں کہ تماشا کہیں جسے”
“ایسا کہاں سے لاؤں کہ تجھ سا کہیں جسے
Aaina Kyun Nah Dun Ke Tamasha Kahin Jisay
Aisa Kahan Se Lau Ke Tujh Sa Kahin Jisay
دل کو ہم صرف وفا سمجھے، تھے کیا معلوم تھا”
“یعنی یہ پہلے ہی نذر امتحاں ہو جائے گا
Dil Ko Hum Sirf Wafa Samjhay, Thay Kya Maloom Tha
Yani Yeh Pehlay Hi Nazar Imteha Ho Jaye Ga
Urdu Sad Poetry Mirza Ghalib
جب جینے کا شوق تھا تو دتمن ہزار تھے”
“اب مرنا چاہتا ہوں تو قاتل نہیں ملتا
Jab Jeeney Ka Shoq Tha To Dushman Hazaar Thay
Ab Marna Chahta Hon To Qaatil Nahi Milta
ہوئی مدت کہ غالب مرگیا پر یاد آتا ہے”
“وہ ہر اک بات پر کہنا کہ یوں ہوتا تو کیا ہوتا
Hui Muddat Ke Ghalib Margaya Par Yaad Aata Hai
Woh Har Ik Baat Par Kehna Ke Yun Hota To Kya Hota
عرض نیاز عشق کے قابل نہیں رہا”
“جس دل پہ ناز تھا مجھے وہ دل نہیں رہا
Arz Niaz Ishhq Ke Qabil Nahi Raha
Jis Dil Pay Naz Tha Mujhe Woh Dil Nahi Raha
وہ مجھ سے بچھڑ کر اب تک رویا نہیں غالب”
“کوئی تو ہمد رد ہے جو اسے رونے نہیں دیتا
Woh Mujh Se Bhichar Kar Ab Tak Roya Nahi Ghalib
Koi To Hamdard Hai Jo Usay Ronay Nahi Deta
ملے وہ شخص تو اسے اتناکہ دینا، غالب”
“کہ کوئی ہر وقت تمہاری راہیں تکتا ہے
Miley Woh Shakhs To Usay Itna Keh Dena, Ghalib
Ke Koi Har Waqt Tumhari Rahein Taktaa Hai
قطع کیجیے نہ تعلق ہم سے”
“کچھ نہیں ہے، تو عداوت ہی سہی
Qata Kiijiye Nah Talluq Hum Se
Kuch Nahi Hai, To Adawat Hi Sahi
اس کی سادگی پہ کون نہ مر جائے اے خُدا”
“لڑتے ہیں اور ہاتھ میں تلوار بھی نہ
Us Ki Saadgi Pay Kon Nah Mar Jaye Ae Khuda
Lartay Hain Aur Haath Mein Talwar Bhi Nahi
درد ہو دل میں تو دوا کیجے”
“دل ہی جب درد ہو تو کیا کیجے
Dard Ho Dil Mein To Dawa Kije
Dil Hi Jab Dard Ho To Kya Kije
Mirza Ghalib Poetry In Urdu 2 Lines
دکھ دے کر سوال کرتے ہو”
“تم بھی غالب کمال کرتے ہو
Dukh Day Kar Sawal Karte Ho
Tum Bhi Ghalib Kamaal Karte Ho
غالب نہ کر حضور میں تو بار بار عرض”
“ظاہر ہے تیرا حال سب اُن پر کہے بغیر
Ghalib Nah Kar Huzoor Mein To Baar Baar Arz
Zahir Hai Tera Haal Sab Unn Par Kahe Baghair
ذرا کر زور سینے پر ،کہ تیر پر ستم نکلے”
“جو وہ نکلے ،تو دل نکلے ،جو دل نکلے تو دم نکلے
Zara Kar Zor Seenay Par, Ke Teer Par Sitam Niklay
Jo Woh Niklay, To Dil Niklay, Jo Dil Niklay To Dam Niklay
زندگی اپنی جب اس شکل سے گزری غالب”
“ہم بھی کیا یاد کریں گے کہ خدا رکھتے تھے
Zindagi Apni Jab Is Shakal Se Guzri Ghalib
Hum Bhi Kya Yaad Karen Ge Ke Kkhuda Rakhtay Thay[share_and_copy_block]
[share_and_copy_block]میں نے چاہا تھا کہ اند وہ وفا سے چھوٹوں”
“وہ ستمگر مرے مرنے پہ بھی راضی نہ ہوا
Mein Ne Chaha Tha Ke And Woh Wafa Se Choton
Woh Sitamghar Marey Marnay Pay Bhi Raazi Nah Sun-Hwa
قاصد کے آتے آتے خط اک اور لکھ رکھوں”
“میں جانتا ہوں جو وہ لکھیں گئے جواب میں
Qasid Ke Atay Atay Khat Ik Aur Likh Rakhon
Mein Jaanta Hon Jo Woh Likhain Gaye Jawab Mein
محبت میں نہیں ہے فرق جینے اور مرنے کا”
“اسی کو دیکھ کر جیتے ہیں جس کافر پا دم نکلے
Mohabbat Mein Nahi Hai Farq Jeeney Aur Marnay Ka
Isi Ko Dekh Kar Jeetay Hain Jis Kafir Pa Dam Niklay
ھم نے تو خاک نشين هو جانا ہے”
“تم ہی نے پھر ڈھونڈتے رہ جانا ھے
Hm Ne To Khaak Nasheen Ho Jana Hai
Tum Hi Ne Phir Dhoondtay Reh Jana He
Sad Poetry Mirza Ghalib In Urdu Love
ہم کو ان سے وفا کی امید”
“جو نہیں جانتے وفا کیا ہے
Hum Ko Un Se Wafa Ki Umeed
Jo Nahi Jantay Wafa Kya Hai
ذرا کر زور سینے پر ،کہ تیر پر ستم نکلے”
“جو وہ نکلے ،تو دل نکلے ،جو دل نکلے تو دم نکلے
Zara Kar Zor Seenay Par, Ke Teer Par Sitam Niklay
Jo Woh Niklay, To Dil Niklay, Jo Dil Niklay To Dam Niklay
مصروف رہنے کا انداز تمہیں تنہا نہ کردے غالب”
“رشتے فرصت کے نہیں توجوں کے محتاج ہوتے ہیں
Masroof Rehne Ka Andaaz Tumhe Tenha Na Kr Dy Ghalib
Rishty Fursat Ke Nahi Tawajoo Ke Muhtaaj Hote Hai
عشق پر زور نہیں ہے یہ وہ آتش غالب”
“کہ لگائے نہ لگے، اور بجھائے نہ بجھے
Ishq par zor nahin, hai yeh voh aatish Ghalib
Ke lagaey na lagey aur bujhaey na bane.
دل میں ذوق وصل و یاد یار تک باقی نہیں”
“آگ اس گھر میں لگی ایسی کہ جو تھا جل گیا
Dil Mein Zouq Wasal O Yaad Yaar Tak Baqi Nahi
Aag Is Ghar Mein Lagi Aisi Ke Jo Tha Jal Gaya
عشرتِ قطرہ ہے دریا میں فنا ہوجانا”
“درد کا حد سے گزرنا ہے دوا ہوجانا
Ishrat Qatra Hai Darya Mein Fanaa Hojana
Dard Ka Had Se Guzarna Hai Dawa Hojanaa
رگوں میں دوڑتے پھرنے کے ہم نہیں قائل”
“جب آنکھ سے ہی نہ ٹپکا تو پھر لہو کیا ہے
Ragon Mein Dorrtay Phirnay Ke Hum Nahi Qaail
Jab Aankh Se Hi Nah Tapka To Phir Lahoo Kya Hai
نہ بزم اپنی، نہ ساقی اپنا نہ شیشہ اپنا، نہ جام اپنا”
“اگر یہی ہے نظام ہستی تو غالب زندگی کو سلام اپنا
Nah Bazm Apni, Nah Saqi Apna Nah Sheesha Apna, Nah Jaam Apna
Agar Yahi Hai Nizaam Hasti To Ghalib Zindagi Ko Salam Apna